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Sunday, January 5, 2020

लटकते दोहे ज्ञान के

 लटकते दोहे ज्ञान के



ज्ञानी ज्ञानी जूझते, ज्ञानी समझ न पाय।

ज्ञानी चुप बैठे रहे, ज्ञानी उठ भग जाय।।

मैं सही और तू गलत, कौन किसे बतलाय।

इते ब्रह्म देखा करें, उते ब्रह्म समझाय।।

गागर है जितनी बड़ी, उतना नीर समाय।

अधिक जल जो भर गया, बाहर बह बह जाय।।

ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है, ब्रह्म सर्वस्य है आप।

तू छोटा और मैं बड़ा, इसे समझना पाप।।

शब्द एक निष्काम है अर्थ अनेकों लोग।

जब समझे निष्काम क्या, नहीं लगावे भोग।।

मन संकल्प भाव उगे, जिसका फल संस्कार।

शुभ अशुभ सब गौण है, करे पुकार संस्कार।।

जगत कर्म न छोड़ना, छोड़ो फल क्या आय।

नहीं लिप्त जब कर्म करो, ताका फल मुरझाय।।

है आसक्ति ही बुरी, सत रज तम गुण रूप।

नष्ट करो आसक्ति को, यह निष्काम स्वरूप।।

काव्य नहीं आसान है, बिन कृपा रच न पाय।

गर इतना आसान हो, हर कबीर बन जाय।

मन मेरा हरिधाम है, तन मंदिर है आप।

एक यही विनती मेरी, रटू राम का जाप।।

दोनों रूप अलग सही, आत्म रूप है एक।

मूर्ख को दो दो दिखे, ब्रह्म नहीं है अनेक।।


जो कुछ जग में है घटित, गुरु की लीला जान।

गुरू प्रभु तो एक है, बस यही तू मान।।

परम आनंद तो तीर्थ है विष्णु है महाराज।

संग शिवोम तीर्थ नाम ले धाम चार करियाद।।

रक्ष रक्ष परमेश्वरी रक्षा कर फरियाद।

जीवन सुखमय होए तब जो करता है याद।।

जय किसकी करता फिरे, तेरी जय जग होय।

ब्रह्म रूप तू ही रहे, मूरख काहे रोय।

जय आतम की बोलकर, खोले मन के द्वार।

सारे संशय मिटे जब, मिट जाय मन भार।।

आतम भाव में लीन हो, भूलेगा संसार।

ब्रह्म वही मिल जायगा, मिल मुक्ति का द्वार।।

हरि हरि जपता रहे, मन हरियाली होय।

हरि नाम का जाप ही,  बिया मुक्ति का बोय।।

राम नाम को लूट ले, कर का सोना डार।

बना तिजोरी हृदय की, हो जावेगा पार।।

गली-गली मिल जायेंगे, भांति भांति के चोर।

 राम नाम ना ही मिला, कैसे होगी भोर।।

मन सूरज बन जायगा, तभी मिलेगी शीत।

जब जल जाय मन मेरा, तभी मिलेगी प्रीत।।

जतन किए बहु विधि फिरे, कहीं मिले न राम।

जब जग छोड़ा कर्म सब, प्रकट हुए भगवान।।

कर्म हीन जग को दिखे, कर्म हींन निष्काम।

सब जगती को खेल है, अविद्या विद्या जान।।

स्वयं प्रशंसा जो करें, आतम हत्या समान।

प्रभु कृष्ण बतला गये, अर्जुन को यह ज्ञान।।

बकरी मैं मैं कर फिरे, गले छुरी चलवाय।

ज्यादा मीठा सड़ गया, कीड़ा ही पड़ जाय।।

गन्ना कितना मीठ बन, कोल्हू पेरा जाय।

बकरी मैं मैं कर फिरे, गले छुरी चलवाय।।

लय बिन काव्य न बन सके, लय बिन न कोई जीव।

लय बिन धरा न टिक सके, देती प्रकृति सीख।।

जीवन की रफ्तार लय, लय बिन सुर न साज।

तोल मोल कर बोलना,  जीवन दे आवाज।।

नहीं समझते भाव जो, वह अभाव रह जाय।

मूरख कुछ समझे नहीं,  कैसे उसे समझाय।।

भावों की नदिया बहे, यह प्रभु की सौगात।

सदा लीन प्रभु में रहो, चाहे दिन या रात।।

प्रभु चिंतन के भाव है मैं मूरख क्या जान।

केवल मैंने सीखा है एक हरि का नाम।।

हर पल मैं सोचा करूं, जब भूलूं हरि नाम।

तब इस जगती को मिले, मेरा अंतिम प्रणाम।।

अर्थ अनेक बनते रहते, शब्द किंतु है एक।

अपना-अपना राग है अपनी अपनी टेक।।

मोर मोर को देखकर, आनंदित है मोर।

सुवरण को ढूंढत फिरें कवि व्यभिचारी चोर।।

मेरी भव बाधा हरो राधा नागर सोय।

जा तन की झाई पड़े शाम हरि दुत होय।।

जो दिखलाऊं बाहर मैं, वैसा भीतर होय।

पर ऐसा होता नहीं, डर दुकान को खोय।।

अंदर खस्ताहाल है, बाहर ऊंची दुकान।

अंदर तो विष भरा है, बाहर दिखे पकवान।।

थोथा ज्ञान दे रहे, सगुण निर्गुण बतलाय।

ऐसे मूरख ज्ञानी जन, हर घर मे मिल जाय।।

निराकार अंत रूप है, सगुण व्यक्त है रूप।

सगुण वही साकार है, रूप है तत्व अनूप।।

ईश्वर प्राप्ति मारग पर, ज्ञानी बढ़ता जाय।

मूरख पीटे लकीर यह, निर्गुण सगुण पगलाय।।

पढ़ किताबें दीमक सी, ज्ञानी यू पगराय।

जस ब्रह्म का ज्ञान सब, पानी भर कर जाय।।

जो जाने साकार सगुण, वैज्ञानिक कहलाय।

जो जाने निराकार है, ज्ञानी वह बन जाय।।

रात्रि गरजी वर्षा थमी, भादों की बरसात।

अंधकार देकर गया, कृष्ण रूप सौगात।।

ईश प्रेम ने ले लिया, कृष्ण रूप अवतार।

सन्तो को मालूम हुआ, करेगा जग उद्दार।।

सप्तम पुत्र हत्या हुई, माँ का पूछो हाल।

कांप कलेजा जग गया, सुन सत्ता का हाल।।

सृष्टि का जो करे जगत, पाप रूप ये काम।

मुक्ति सोचों दूर की, पाये नही विश्राम।।

हत्या करे जो जीव की, पूर्ण पाप यह काम।

मन को मिले न शांति, ईश्वर का अपमान।।

जन्माष्टमी का पर्व जो, पुनः स्मरण कराये।

दुष्ट कर्म तू छोड़ दे, कृष्ण प्रेम पा जाये।।

प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।

ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।।


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