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Friday, January 3, 2020

चिंतन दोहे

चिंतन

कैसे माया है भरमाती, चाल देखता बेबस हूँ।

माया को कोई पार न पाया, ढाल है टूटी नीरस हूँ।।

साँसों की माला को गिनता, एक सांस न आएगी।

नहीं रुकेगी यात्रा अपनी, जाने कहाँ ले जाएगी।।

इस चक्र का आवागमन, काल गाल का ग्रास बने।

मूरख मनवा सत्य यह माने, भांति भांति के स्वप्न बुने।।

लोभ जगत का गहराया जब, नाम प्रभु का भूल गया।

साथ जो तेरे न जाएगा, उसको पाकर झूल गया।।


दोहे

शब्दो की बाजार सजी है, सुंदर प्यारी भाषा।

पर माया से मोहित होवे, करनी न जो आशा।।

बड़े बड़े मंचो पर आसीन, सुंदर फोटो लगावै।

पर नोटों की गड्डी देखी, झटपट छोड़ें भागै।।

यही दिखावा बढ़ता जाय, चढ़ कानून के हत्थे।

बाहर आया जो था अंदर, रह गए हक्के बक्के।।

जो अंदर से भरे हुए है, बाहर दिखते खाली।

मूर्ख़ बने रहते दुनिया में, अंदर ज्ञान की प्याली।।

पर दुनिया की रीति निराली, बड़ी दुकान है भाए।

जहां ज्ञान पर मान दिखे न, उधर कौन है जाए।।

 

माया

माया ने ब्रह्मांड उठाया।

बड़े बड़ो को नचाया।

ऊपर उठाया गिर नीचे गिराया।

उस महामाया से कोई बिरला ही पार पाया।


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