दीवाली कैसे हो सकती
दीवाली कैसे हो सकती
विपुल लखनवी
जब तक मन में उजियारा न।
दीवाली कैसे हो सकती।।
जब तक मन प्राण पियारा न।
दीवाली कैसे हो सकती।।
जब राम प्रभु मन का रावण।
मारें और वापिस न आयें।।
जब तक वनवासी राम प्रभु।
मुझको न तारे घर आयें।।
तब तक दीवाली व्यर्थ रही।
मन में हर्षाली न हो सकती।।
जब तक अहंकार का रावण जो।
मन में रहता प्रतिपल बढ़ता।।
जब तक सीता है कैद यहाँ।
असुरों का पहरा है सजता।।
जब तक हनुमान जलाए न।
लंका उजियाली न हो सकती।।
जब तक अंगद का पाव नहीं।
मन के दरबार जम पाता है।
जब तक ह्रदय में राम सेतु।
पूरा निर्मित हो पाता है।।
तब तक न मेरी दीवाली।
एक पूजा की थाली हो सकती।।
ये दास विपुल उल्टा चलता।
उल्टी बातें इसको भांति।।
न भीड़ भाड़ न जगत खेल।
बस एक ही है लुभा जाती।।
जब तक ब्रह्म जलाए न दीपक।
कैसे दीवाली हो सकती।।
No comments:
Post a Comment