भस्म करो मेरे अहम् को।
दास विपुल
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य
मैं अहम् में चूर होता, भस्म कर मेरे गुरू।
नहीं अहम् की भावना हो, यही वर दे दो प्रभु॥
गर्व मैं करता रहा अपनी सुंदर काया पर।
माया ने घेरा मुझको नष्ट कर माया गुरू॥
अपनी कला गर्व करता अहम् अपने आप पर।
अहम् अपनी लेखनी का चूर कर मेरे गुरू॥
अपने मन अहंकार ले भजन मैं लिखता रहा।
दर्प का है सर्प विषधर दूर कर मेरे गुरू॥
तीर्थ प्रभु शिवोम स्वामी सूक्ष्म मन अहंकार का।
आ फंसा दीन दास विपुल भस्म कर मेरे गुरू॥
तीर्थ ऐ नित्यबोधानंद कौन सा यह खेल है।
गर्व अहविद्या का है ब्रह्म कर मेरे गुरू॥
दास विपुल को अहम् है सद्गुरू तेरी शक्ति पर।
या अहम् का ही वहम है भेट सब मेरे गुरु॥
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