व्यंग्य: बोलो शिव जयकारा
व्यंग्य: बोलो शिव जयकारा
विपुल लखनवी, नवी मुम्बई
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ज्ञान की पोथी रट कर बैठे, सोंचा ब्रह्म समाही।
मूरख समय गवायो एसो, पिंजरे तोता नाही।।
बहुत खूब नजारा॥ बोलो शिव जयकारा।
सतगुरू शब्द सुनाया तुझको, तूने कितना ध्याया।
जाप तनिक भी कीन्हो नाही, मूरख समय गंवाया।।
समय न इनको वारा॥ बोलो शिव जयकारा।
बहती ज्ञान की धारा।।
रटे श्लोक बने महाज्ञानी, गुरू की खोल दुकान।
प्रवचन करते बड़े बड़े वो, बढ़ती जाये दुकान॥
ग्राहक बनो हमारा॥ बोलो शिव जयकारा।
बहती ज्ञान की धारा।।
मंच है ऊंचा पर खुद नीचे, रूप बहुतेरे बनाय॥
तू चेला मैं गुरू हूं तेरा, नतमस्तक हो जाये॥
नोट से भोग हमारा, बोलो शिव जयकारा।
बहती ज्ञान की धारा।।
बन बैठे जो महा के ज्ञानी, पंडित वेद बखानी।
दास विपुल बस इनको देखे, माया आनी जानी॥
सनातन इनसे हारा, बोलो शिव जयकारा।
बहती ज्ञान की धारा।।
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