मैं माटी का पुतला
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
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मैं माटी का पुतला केवल, मिट्टी मेरा धाम है।
हरिनाम की लीला दीखे, कोटि जिसे प्रणाम है।।
वर्ष बिताए तीन हजार, भटक भटक कर भटक रहा।
कितना समझाये सद्गुरूवर, मोह माया में अटक रहा।।
जाने कब तक मुक्ति होगी, नहीं पता कुछ मुझको है।
गुरुवर सदा मुस्काते रहते, लाख धता जस मुझको है।।
खेल जगत के देखा करता, नाटक लगता जग सारा।
इस नाटक ने लूटा जग को, जग को लगता यह प्यारा।।
मैं भी एक नाटक का हिस्सा, समय बिताता आया हूँ।
कृपा असीम देव गुरुवर की, प्रभु को अपने पाया हूँ।।
कैसे माया है भरमाती, चाल देखता बेबस हूँ।
माया को कोई पार न पाया, ढाल है टूटी नीरस हूँ।।
साँसों की माला को गिनता, एक सांस न आएगी।
नहीं रुकेगी यात्रा अपनी, जाने कहाँ ले जाएगी।।
इस चक्र का आवागमन, काल काल का ग्रास बने।
मूरख मनवा सत्य यह माने, भांति भांति के स्वप्न बुने।।
लोभ जगत का गहराया जब, नाम प्रभु का भूल गया।
साथ जो तेरे न जाएगा, उसको पाकर झूल गया।।
शब्दो की बाजार सजी है, सुंदर प्यारी भाषा।
पर माया से मोहित होवे, करनी न जो आशा।।
बड़े बड़े मंचो पर आसीन, सुंदर फोटो लगावै।
पर नोटों की गड्डी देखी, झटपट छोड़ें भागै।।
यही दिखावा बढ़ता जाय, चढ़ कानून के हत्थे।
बाहर आया जो था अंदर, रह गए हक्के बक्के।।
जो अंदर से भरे हुए है, बाहर दिखते खाली।
मूर्ख़ बने रहते दुनिया में, अंदर ज्ञान की प्याली।।
पर दुनिया की रीति निराली, बड़ी दुकान है भाए।
जहां ज्ञान पर मान दिखे न, उधर कौन है जाए।।
दास विपुल जगत की लीला, उलट फेर है मानी।
लाख जतन करता आया, न बन पाया ज्ञानी॥
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