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Thursday, January 16, 2020

कवि कौन

कवि कौन 


 

 

देवीदास विपुल उर्फ  

विपुल सेन “लखनवी”

 नवी मुंबई 

मैं जानूं कछु भी नहीं,  भाव शब्द का ज्ञान।

जग बोले मैं कवि हुआ, पुतला माटी जान॥

भाव शब्द मेरे नहीं, मैं अशक्त ये मान॥

लिखता कोई और है, पुतला मेरा जान।

लोग कवि कहते मुझे, मैं पुतला अज्ञान॥

कलम हाथ मेरे थमा, देता वो निरदेश।

मैं तो बस पढ़ता रहूं, जो उसका आदेश॥

मैं कुछ भी करता नहीं, करता कोई और।

सांसों की माला फिरे, ये ही जग में ठौर॥

नशा राम का मिल गया, दूजा नहीं सुहाय॥ 

मूरख कितने जगत में, मदिरा पी लुढ़काय॥

नहीं दाम देना पड़े, नहीं पात्र लूं हाथ।

धर धारा पीता रहूं, प्रियतम के ही साथ॥

मूरख ढूंढे जगत में, नहीं हाथ में आय।

अंतर में सागर भरा, बिरला पी पी जाय॥

जगत वासना डूबकर, अधो:गति को पाय।

मानव देही नष्ट कर,  जाने क्या मिल जाय॥

अपनी गति से चल रहा, काल चक्र का खेल।

समय जो बीता न मिले, करे स्वयम से मेल॥

अपना जीवन घट रहा, इन सांसों के साथ।

मूरख समझे पकड़ मैं, रख लूं अपने पास॥

दास विपुल विनती करे, समझो जग का ढोल।

श्वासें तेरी कीमती,  समझो इनका मोल॥


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