रात भर रोता रहा
देवीदास विपुल उर्फ
विपुल सेन “लखनवी”
नवी मुंबई
रात की तन्हाईयों में रात भर रोता रहा।
प्रातः की किरणें सुनहरी बीज कुछ बोता रहा।।
मंजिलों पर पहुंचुंगा कैसे यही चिंता बाकी है।
मंजिलों को ढूंढने में सब कुछ मैं खोता रहा।।
बस चला न मेरा कुछ भी भाग्य में जो होना था।
भाग्य से लड़ पाया न जाने क्या होता रहा।।
चादर मेरी मैली ही थी साफ न कर पाया मैं।
लाखों जतन करता रहा जीवन भर धोता रहा।।
है विपुल अंतिम समय जब नींद मेरी टूटी है।
थी जवानी जब पास मेरे तान कर सोता रहा।।
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