कलियुग के अकाट्य दोहे
यह कलियुग की देन, पहले प्रभु को जान।
फिर चलना आरम्भ हो, उल्टी गिनती मान।।
प्रभु तो टाइमपास है, बस ऐसे ही मान।
मुझको जग ही भाता है, कौन हो परेशान।।
मूड रहा तो जान लूं, प्रभु की कौन परवाह।
दुनियादारी निभा लूं, समय बचा तो वाह।।
यह सब पुरातन बात है, मैं आधुनिक जीव।
मूरत में है क्या धरा, यह तो है निरजीव।।
मूरत मानव ही जनै, अपने मन कर विचार।
वैसा चेहरा बन गया, जैसी मन तकरार।।
हाथ पसारे आये हैं, हाथ पसारे जाय।
अंत समय सिकन्दर सम, जी भर पछताय।।
मैं भिखारी राम का, राम द्वारे वास।
जब तक ह्रदय राम है, तब तक जगत निवास।।
विद्युत का क्या रूप है, पर यंत्रों में वास।
वोही मूरत प्रभु की, मूरत में निवास।।
नशा हमेशा मैं करूँ, पर मद्य दिखत नाय।
टुन्न रहूँ हर शाम मैं, राम नशा दे जाय।।
ईश्वर जग चला रहा,बिना किये ही करम।
मानव भी ऐसे चले,पर मन राखे भरम।।
धन बिन यह हाला मिली, नशा मिले बिन दाम।
दास विपुल तो तर गया, पीकर बेसुध जाम।।
राधामय परभात जब, कृष्णमय रात्रि आय।
पर्व रहे हर पल सदा, राधा संग हर्षाय।।
कुछ पल का पाया नशा,सतत नहीं मिल पाय।
कृपा करो मेरे प्रभु,नशा निरंतर आय।।
विद्युत शक्ति पंखा चले, निज अभिमान बढाय।
ईश्वर शक्ति से चले, अहम अहम औधाय।
ईश्वर जगत चला रहा, बिन कर कोई कर्म।
जिसने जाना ज्ञान यह, समझे वह ब्रह्म मर्म॥
गुरू द्रोही नहीं शांति, धरा गगन पाताल।
योनि मिले पिशाचों की, न मिले मुक्ति अकाल।।
गुरू द्रोह कभी न करो, चाहे छूट शरीर।
दास विपुल जो कह रहा, कह तुलसी या कबीर।।
शिव द्रोही को ठौर है, कहते वेद पुराण।
गुरू द्रोही न बच सके, क्षमा न दे भगवान।।
गुरू बचाता यदि कहीं, कर शिव का अपमान।
पर शिव नहीं बचा सके, क्रुद्ध गुरू ये जान।।
गुरू सहने की मूर्ति, कभी न क्रोधित होय।
किंतु गुरू शक्ति है ब्रह्म, वोह तो रूष्ट होय।।
छलिया गुरू भरमार है, देख जगत में आज।
किंतु सदगुरू मिल सकें, गर तेरा हो भाग्य।।
गुरू ठोंक कर कीजिये, ठोंक बजाये देख।
किंतु गुरू यदि कर लिया, नहीं कलुष या मेख।।
गुरू परीक्षा लेने का, है तुझको अधिकार।
शीश झुकाने के पूर्व, कर अनगिनत प्रहार।।
एक बार जो बन गये, सद्गुरु चेला आप।
फिर उसका अपमान हो, घोर नरक है पाप।।
शक्ति के जो खेल हैं, दुनिया समझ न पाय।
वैज्ञानिक ले यंत्र को, जगत शक्ति पगलाय।।
दास विपुल वाणी सुनो, बिना अनुभव न लेख।
लेकर उपाधि जगत की, समझ सका प्रभु देख।।
सुन्दरं सुंदर हुआ, जन सेवा कर आज।
ज्ञानवान प्रचार कर, सुंदर कर दिए काज।।
ये पुस्तक बहुमूल्य हैं, सुंदर मूल्यवान।
पढ़ने मनन से मिले, परा लोक का ज्ञान।।
फंस हंस कर बेहोश हो, इतने सारे नूर।
किधर कहाँ को चलूं मैं, थककर चकनाचूर।।
रात्रिकाल में इष्ट से, पूछो मारग कौन।।
स्वप्न में आ जायेगा, कौन अधूरा पौन।।
मन को साधे साध है, तन को साध निरोग।
कह यह ज्ञानीजन सभी, मन्त्र जाप से योग।।
पहले मन्त्र जप तो आरम्भ करो जो अच्छा लगे।
रात्रि करे जो ध्यान जो, दिवस करे जो पाप।
मुक्ति कैसे मिल सके, घटता बढ़ता हिसाब।।
मन को स्थिर करो प्रथम, चिंतन करो गुरूदेव।
जाप करो रात्रि इष्ट का, होय सहायक देव।।
मन्त्र जाप आरम्भ करो, जब निद्रा न आय।
जब आती है निद्रा, करत जाप सो जाय।।
लाभ और हानि देखना, यह बनिये का काम।
प्रभु चिंतन कैसे करो, न कोई इसके दाम।।
यह सब करें सहायता, मन निर्मल को काज।
मन्त्र नाम तो शब्द हैं, जपे निरन्तर आज।।
गीता सार दे ज्ञान का, प्रतिबिंब तोय दिखाय।
जान सको कब योग है, भलीभांति समझाय।।
स्थिर बुद्धि हो गए, स्थितप्रज्ञ बन जाये।
समत्व भाव जो आ गया, तब योगी कहलाये।
ज्ञान योग तो श्रेष्ठ है, किंतु भक्ति अनमोल।
प्रेम योग से मिले प्रभु, कृष्ण गीता के बोल।।
भूखा गर मॉनव कहीं, भजन नहीं कर पाय।
पेट भरे तब बात हो, प्रभु याद तब आय।।
प्रभु प्रेम है विलासिता, भूखा यही चिल्लाय।
भरे पेट की बात है, प्रभु स्मरण तब आय।।
बालक सम योगी बनो, सीखो उससे योग।
ऊंच नीच का भेद न, छल कपट न वियोग।।
टेढी बुद्धि मिले न, ईश दृश्य न होय।
भोली बुद्धि है भली, प्रभु संयोग हर कोय।।
उच्च वरन में जनम मैं, नहीं दिखावा कोय।
रविदास की शिष्या मीरा, नहीं दीखत है तोय।।
मूरख अधिक जगत में, न समझें वह ज्ञान।
रंग महल को देखकर, समझें उच्च दुकान।।
मूरख हिन्दू लड़ मरे, तुरकन यही चाह।
अग्नि से न बुझ सके, अग्नि फैल अथाह।।
तू नीचा मैं ऊंच हूँ, मूरख करे बखान।
दोनों लड़ते मर रहे, जैसे अंध समान।।
देश खंडित यूं हुआ, नहीं सूत्र था एक।
सत्य सनातन भूलते, कथनी कर न विवेक।।
तिल तिल कर मिट जाओगे, गर न समझे आज।
अग्नि से ही बुझा रहे, जो अग्नि की आग।।
समझदार कुछ तो बनो, क्योंकि तुम हो पाठ।
भ्राता से गर लड़ मरे, शत्रु क्यों हो आज।।
हिंदुत्व की वे देन हैं, तुम भी हिन्दू कहायो।
हिंदुओं अब समय है, सभी एक हो जाओ।।
नहीं नियंत्रण जन्म का, कोई अपने हाथ।
फिर मॉनव क्यों कर रहा, जाति पाति उत्पाद।।
जीवन में गर ज्ञान हो, अंतर्मन आनन्द।
समझो तुमने पा लिया, ईश प्रेम सानन्द।।
हिन्दू मुर्दा कौम है, मुर्दा इनका ज्ञान।
बंट कर रहते सभी, मूर्ख़ चतुर सुजान।।
मन को साधे साध है, तन को साध निरोग।
कह यह ज्ञानीजन सभी, मन्त्र जाप से योग।।
चढ़ा पुदीना झाड़ पर, झाड़ू देय बुहार।
हे सदगुरू कर आपनो, हमको देय सुधार।।
सुनी प्रशंसा फूलते, जैसे मृत शरीर।
मूरख को न ज्ञान है, मुर्दा हुआ शरीर।।
स्वयं प्रशंसा मृत्यु सम, आत्म श्लाघ आत्म घात।
प्रशंसा से बच कर रहें, आत्म सोचिये आप।।
चिंतन मनन करे जब, कहीं प्रशंसा होय।
कहीं गर्व न घुस रहा, अहंकार तुष्ट होय।।
हर्ष करें नही स्तुति सुन, शोक नहीं संताप।
स्थितप्रज्ञ तब जानिये, योगी हो गये आप।।
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