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Wednesday, January 15, 2020

मैं सदा जलता रहा

मैं सदा जलता रहा


 

 

देवीदास विपुल उर्फ  

विपुल सेन “लखनवी”

 नवी मुंबई 


एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।

मिट्टी के ढेले की भांति मैं सदा गलता रहा।।

 

चाहे कितना कठिन पथ हो मैं सदा चलता रहूँ।

धुप वारिश या हवा हो सब दुःखो को मैं सहूँ।।

सूर्य  क़ी ले रोशनी मैं सदा चलता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

चाहे क़ितना हो अंधेरा चमक तो मुझ में रही।

कर्ण चाहे ना हो मेरे मैं तो सुनता अनकही।।

भावो की परछाई लेकर  मैं सदा सुनता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।


चाहे जीवन न मिले या मिले जीवन कहीं ।

मैं सदा हूँ साथ तेरे श्वासों की माला बही।।

फिर भी मैं तेरे ही भीतर मैं सदा जगता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

कौन मैं न जानते हो मेरी कभी न मानते हो।

मैं हूं तेरी आत्मा मुझको नहीं पहिचानते हो॥ 

जो मैं कहता तू सुने न फिर भी मैं कहता रहा। 

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

तेरी सांसे कब थमेंगी न पता तुझको भी है ।

कब तू जायेगा धरा से यह पता मुझको ही है।

न कभी सोचा है तूने मनमानी करता रहा। 

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

कितना तुझको रोकता हूँ पर नहीं मेरी चले।

मैं छलूँ न तू तो छलिया मर्जी तेरी ही चले।।

कुछ गलत हो या सही हो तू सदा छलता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

मैंने तुझको रोका कितना यह गलत न चल इधर।

किंतु तूने न सुनी चल पड़ा रोका जिधर॥

पर कभी भी न रुका तू चुपचाप मैं सहता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।


मुझको भी सुन ले कभी मैं विपुल तेरा गीत हूं।

मुझको गर तू पढ़ सके तो मैं तेरा संगीत हूं।।

कुछ समझ ले मैं हूँ तेरा तेरा बन सजता रहा।

एक दीपक की तरह मैं सदा जलता रहा।।

 

 



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