पुलवामा पर दुखी मन के उदगार।काव्य
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
कैसे प्रेयसी तेरे आंगन आ प्रेम इजहार करूँ।
कैसे तेरी मांग भरूं औ फूलों का श्रंगार करूँ।।
आज देश पर मिटनेवाले कुछ हमसे अब कहते है।
पी मृत्यु के प्याले लेटे कष्ट सभी जो सहते है।।
उनकी व्यथा व्यथित ह्रदय कैसे प्रेम हजार करूँ।
कैसे तेरी मांग भरूं औ फूलों का श्रंगार करूँ।।
दिल रोता है मन मे पीरा अमर हुए जो वे थे हीरा।
हमको सुख देने की खातिर गले लगाया तन को चीरा।।
उनकी यादें जेहन में जब कैसे प्रणय की रार करूँ।।
कैसे तेरी मांग भरूं औ फूलों का श्रंगार करूँ।।
जब देश मे घना अंधेरा गद्दारों का कुनबा डेरा।
छिप आस्तीन हमे डसते गद्दारों की बस्ती डेरा।।
तब कैसे द्वारे तेरे आऊं वर माला द्वारचार करूँ।।
कैसे तेरी मांग भरूं औ फूलों का श्रंगार करूँ।।
विपुल व्यथित दिन है कैसा रात दिखे न सूरज वैसा।
कलम मार क्या कर सकती शत्रु भेदन कर न सकती।।
अब प्रेम के गीत क्या गाऊँ चुका ऋण उद्धार करूँ।
कैसे तेरी मांग भरूं औ फूलों का श्रंगार करूँ।।
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