बियाबान बांगवा
विपुल लखनवी। नवी मुंबई।
मेरा बांगवा हरा था बियाबान हो गया।
एक घर से न जाने कब मकान हो गया।।
गूंजती किलकारियां बच्चों के कहकहे।
एक जानदार बस्ती थी श्मशान हो गया।।
बाट जोहती रहती है अपनी आंखे अब।
देखते हुए दरवाजे एक थकान हो गया।।
चिठ्ठी नही मिलती कभी मोबाइल आफ है।
लाइन हर दम व्यस्त एक अजान हो गया।।
किसको सुनाऊं हालेगम अपना लखनवी।
आंखों में अश्क इतने मुस्कान हो गया।।
गांव छोड़ा कभी औलाद की खातिर।
उड़ गए परिंदे घोसला वीरान हो गया।।
Superb sir
ReplyDeleteSuperb sir
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