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Thursday, February 13, 2020

मां क्षमा करो (क्षमा प्रार्थना)

 

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मां क्षमा  करो (क्षमा प्रार्थना)  

दास विपुल 

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🙇मां तुम्हारे चरणों में समर्पित यह जीवन 🙇

न जानूं मंत्र मैं माता,  न जानूं यंत्र मैं माता।

न स्तुति मुद्रा है भाती,  न पूजा रास है आती॥
न ध्यान मुझको है आता, अवाहन जानूं न माता।
कथा स्रोत रास न आवे,  रिपु मूरख अति डरपावे॥

न मुद्रा तेरी मैं जानूं, न तुझको तनिक ही जानूं
 
न व्याकुल अश्रु है गिरते,  नहीं स्तुति गीत ही रचते
परन्तु मारग यह जानूं, तिहारे पीछे हो मानूं॥
वही सब कष्टों को हरता,  सारे जग का है भरता।

जगत कल्याण करती मां,  विपुल पापों को हरती मां॥
नहीं जानूं तरीका क्या, नहीं जानूं सलीका क्या॥
ये बुद्धि पाप संग डूबी। कुबुद्धि कुसंगत में डूबी
 
कृपण कंजूस चपल मैं ही, करमहीन आलसी मैं ही॥

अराधन तेरी न करता, सदा माया रमण रमता।
मेरी जो त्रुटि रह जावे, तेरी दृष्टि नहीं  आवे॥
कपूत पूत भी होते, कुमाता न होती माते
 
पूत के अवगुण न देखे, सदैव आंसू को पोंछे॥
धरा पर सपूत बहुतेरे, रहें तुझको सदा घेरे।
परन्तु माता मैं चपला, दुष्ट पापी बना सबला॥
शिवे जो बिसरती मुझको, कदाचित शोभित न तुमको।
हां कपूत दुष्ट मैं माता, नहीं देखी है कुमाता॥ 

पूत के अवगुण न देखे, सदा उसका ही हित सोंचे।
नहीं तेरे चरण रोया,  कभी न पापों को धोया॥
न तुझको दे सका अर्चन, कभी तेरा नहीं  पूजन।
तथापि किरपा मां तेरी, निराली महिमा मां तेरी ॥

कारण इसका मैं मानूं, तेरी कृपा को ही जानूं

लम्बोदर देव की जननी, परम शिवतत्व की भगिनी

मैं मूर्ख वृथा ही जाया, सभी देवों को रिझाया
इस कारण माता रोया, जीवन पूरा ही खोया

समझ में अब मुझे आया, नहीं जब कुछ कहीं पाया
तुम्हारा नाम ही काफी, न रहता फिर कहीं बाकी॥
तुझे गर अब नहीं भजता, किधर जाऊं भला भरता

माता के मन्त्रों का अक्षर, प्रदाता शांति सुख आखर॥

विपुल मूरख जो अज्ञानी,  बने सुपात्र और ज्ञानी। 
तुम्हारी लेश सी किरिपा, बना दे भाग्य सुख बरपा॥
बने वह  दीन से दाता,  बने याचक से प्रदाता
 
अक्षर की शक्ति है इतनी, मात का नाम तब कितनी॥
तभी मन होवे  रोमांचित,  पूरित सब मन जो इच्छित

निरंतर नाम जो लेते,  तुम्हारी भक्ति जन करते॥
उन्हें फिर पुण्य हैं कितने,  गगन में नक्षत्र हैं जितने।
होता दुनिया में दुर्बल, तुम्हारी महिमा से सबल॥

चिता की राख है भूषण, लपेटे सर्प आभूषण।
हुये जो तत्व के ज्ञानी,  रूद्राणी नाम जो जानी॥
बने जगदीश्वर सुशोभित, मिली मन कामना वांछित।
महिमा प्रबल क्यों इतनी,  सकल ब्रह्मांड सम जितनी॥

सभी का एक ही कारण, तुम संग शिव पाणि ग्रहण।
कमल मुख चंद्र की शोभा, बिखेर कांति और आभा॥
मुझे न मोक्ष की आशा,  नहीं वैभव की अभिलाषा।
न विज्ञान ज्ञान है वांछित, न कोई सुख मुझे इच्छित॥

मुझे एक विनय है आये, तुम्हारा नाम जप भाये।
मेरा जीवन यह सीखें,  तेरे चरणों में बीते॥
मुद्राणी शिव शिव रूद्राणी, यही निकले मेरी वाणी।
यह है करम की भावना, मेरे अंतर की कामना॥

किया न तेरा आराधन,  विविध पूजा न कुछ अर्चन।
मेरी कागा सी वाणी, सदैव करती रही हानि॥
अनेक पापों में खोया, तेरे चरण नहीं रोया।
न जानूं मात क्या करना, तुम हो पुत्रों की तरना॥

तुम्हारे सम दयालु मां, बनीं करूणा सागर मां।
मुझ सम पापी को आश्रय, बढ़ाई महिमा जग प्रश्रय॥
माता करुणा का सागर, तुम्ही हो ज्ञान की आगर।
तुम्हारे द्वार पर आया, तेरी महिमा को गाया॥

इसे अन्यथा नहीं लेना,  मेरी शठता समझ लेना।
बालक भूखा हो प्यासा,  नहीं कोई दिखे आशा॥
नहीं जाये किसी द्वारे,  केवल मां तुझे पुकारे।
करे अपराध जो भारी, माता महिमा है न्यारी॥

न पुत्र मां को पहचाने, परंतु माता पुत्र मानें।
न करें मां कभी उपेक्षा, पूरित करती सदा इच्छा॥
न दुराचारी जग ऐसा, जगत में विपुल है जैसा।
तुम्हारे जैसा न कोई,  विनाशे पाप जो होई॥

अत: हे माता तुम आओ, उचित जो हो करे जाओ।
क्षमा प्रार्थना हो पूरित, माता जो भक्त को इच्छित॥ 
 
 
 

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