Tuesday, February 11, 2020

मैं चला था थूकने उस चांद पर

मैं चला था थूकने उस चांद पर 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,   

मैं चला था थूकने,  आसमां के चांद पर।

दे रहा था चांदनी,  संग प्रेमल जगत को॥

जो न मांगे मोल कुछ, कभी भी इस धरा से।

कर रहा चुपचाप बस, मात्र अपने काम को॥

 

नहीं सहन मुझको हुआ,  तनिक भी व्यवहार यह।

द्वैष ईर्ष्या मन: पटल, मन में मेरे भर गई॥

क्यों जगत है देखता,  हीन दुर्बल चांद को।

कौन बड़ा काम है, रात्रि जूही खिल गई॥ 

 

मैं अहम् में चूर हूं, जग में सूरज बना हूं।

क्यों न मेरी तरफ सब, इस जगत में देखते॥

वह निरा कमजोर दुर्बल, और शीतल है बना।

मुझे ही सब क्यों नहीं,  इस जगत में पूजते॥

 

पर मैं भूला इक नियम,  जो रहा संसार का।

सूरज भी ढल जाता,  देखो हरेक शाम को॥

चांद की शीतलता,  प्रेम की गाथा बनें।

शांत हो जाता मन,  देखकर उस बाम को॥

 

प्रकृति के इस प्रांगण,  चांद है सुंदर बना।

प्रेयसी के भाव रच,  बना जाता गान को॥

गा पपीहा विरह संग, व्याकुल प्रीत पा गया।

और देता इस जगत, बना कालीदास को॥ 

 

विरह की अनुभूति को,  भी स्मृति संग साथ ले॥

जो कवि की कल्पना के, कुछ नये आयाम बन।

जगत के इस ताप के,  संताप को हर नष्ट कर।

दे रहा कुछ प्रखर हो, सांत्वना कुछ हृदय बन॥ 

 

पर विपुल नासमझ बन,  सत्य से मुख फेरे रहा।

लेकर बोझ झूठ का,  जगत में गाता फिरा।।

और अंतत: यह हुआ, घटित कुछ ऐसे हुआ।

थूक मेरा ही मेरे मुख,  वापिस आकर गिरा॥


2 comments:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन हेतु। कृपया टिप्पणी करते रहें साथ ही औरों को शेयर करें। धन्यवाद

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