Wednesday, January 15, 2020

अंधे को गर अँधा बोलो

अंधे को गर अँधा बोलो


 

 

देवीदास विपुल उर्फ  

विपुल सेन “लखनवी”

 नवी मुंबई 

अंधे को गर अँधा बोलो, बुरा उसे लग जाता है।

सत्य बात लेकिन यह होती, देख नहीं वह पाता है।।

इसी भाँति इस जग में केवल, मन की  देखना हम चाहें।

अपने मन को प्रिय लगे जो, वो ही हम करना चाहे।।

यह स्वभाव मनुष्य का होता, पशुओं में यह नही मिले।

जैसे अंदर वैसे बाहर , एक समान सब पशु दिखे।।

स्वामीभक्ति कुछ हमको, कुत्ता भी सिखलाता है।

घोड़ा हाथी चाहे तोता, स्वामीभक्ति बतलाता है।।

पर इंसा है नमक हरामी, बात न इसने सत्य जो मानी।

जिसकी खाता उसे बजाता, गद्दारी अक्सर कर जाता।।

यही बात अब देश में दिखती, धर्म बड़ा न देश की भक्ति।

माँ स्थान जो सबसे ऊंचा, बच्चे को है लहू से सींचा।।

उसी भाँति है देश हमारा, हमें बताया सबसे प्यारा।

इसकी छाती पर नदियां है, जल को पी बीती सदियाँ है।।

जाने क्या तब हो जाएगा, वन्दे मातरम् जब गायेगा ।

यही दिखाए असली जामा, ऊपर नकली है पैजामा।।

कही सुनी जो हम अब देखें, नहीं यकीं आँखो को मीचें।

क्या ऐसे भी लोग जहाँ में, बहे गद्दारी खून निशां में।।

है हैरान विपुल यह देखे, मन अश्रु न बाहर फेकें।

कलम कहीं रूक जाती चलकर, भाव नहीं आ आता है।।

अंधे को गर अँधा बोलो, बुरा उसे लग जाता है।।


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