Monday, January 20, 2020

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा

 बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा


मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य

 

 

देवीदास विपुल उर्फ  

विपुल सेन “लखनवी”

 नवी मुंबई 

 

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।

न समझ पाया यह जीवन धीरे से पछता रहा।।


सांसो की बाती बनाकर ज्योति कैसे जल रही।

यह बुझेगी न पता अब कुछ समझ में आ रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।।


जब स्वयं संग वासनाएं चित को मैला कर लिया।

चादर भी अब फट चुकी है कैसे सिलता जा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


मैंने सोचा यह जगत मुझको ही मिल जाएगा।

किंतु न मेरा है कोई भोग भोगे जा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


न कभी आरत उतारी न संवारा जोत को।

न पता मंजिल कहां है किंतु दौड़ा जा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


अब विपुल वैराग्य आया जब नहीं कुछ पास है।

जो जगत बेकार है अब दान देता जा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


जब युवा था मैं कभी भागता और हांफता।

मैं गलत था कितना मूरख वक्त यह समझा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


है विपुल हैरान अब तो देखता इस जगती को।

आ रहा सबकी समझ में काल ग्रसता जा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।


अब  शरण शिवओम लेकर राम का कुछ नाम ले।

वो ही तारेगा जगत से दास विपुल गा रहा।।

बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा।

न समझ पाया यह जीवन धीरे से पछता रहा।।


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