Monday, January 27, 2020

सौ की सीधी बात

सौ की सीधी बात
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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पिया मिलन को मैं गई। पिया मिले न खास।।
मैं तो जोगन बन गई। पिया लिए वनवास।।
पिया मेरे घर आ गयो। मैं भूली बिसराय।
पिया को देखत सुध गई। पिया नजर न आय।।
चुटकी केवल नमक की। स्वाद चटकारे खाय।।
चुटकी बड़ी बिगड़ गया। भोजन न कर पाय।।
चुटकी चिटक चिंतन बनी। चिंतन जग भरमाय।।
चितन दूटा चुटकी से। ध्यान नही कर पाय।।
चुटकी भर भर भर गये। बड़े बड़ जो खदान।।
चुटकी भारी वजन है। ना ये लघु नादान।।
बीबी चुटकी काट लो। जैसे फन उठ नाग।।
बचने का एक रास्ता। भाग सके तो भाग।।
योग योग तो सब रटै, योगी भया न कोय।
प्राणी जब अंतर्मुखी, योग घटित तब होय।।
हाथ पैर को मोड़कर, समझावै यह योग।
सरकस जोकर सब करै, महागुरू फिर भोग ।।
चित्त वृत्ति निरोध जब, योग तभी तू जान।
          हाथ पैर मोड़ा करै, क्रिया शरीर की मान।।

 बुध्दि अपनी खोल कये, नाम हिरदय में नोट।
भविष्य क्या विज्ञान का, तब फिर डाले वोट।।

सभी लोग तो मित्र है, पर सीमित है वोट।
जो कल्याणी भाव है, तनिक न जिसमे खोट।।

दूजे बोले भरष्ट तू, खुद करे भ्र्ष्टाचार।
विपुलन ऐसे जनै का, कौन बने भरतार।।

दूजे को उंगली दिखे, तीन दिखी तो आप।
एक पाप दूजा भया, तेरो तो त्रि पाप।।

चुनाव नगर सेवक लगे, लगे नही विज्ञान।
बस सबको है जीतना, एक पसेरी धान।।

लाभ यश हानि मरण, सब विधना के हाथ।
सारा धरा रह जायेगा, न जाये कुछ साथ।।

बुध्दि जिनकी नेक है, ईश मिलेगा हाथ।
जो है तेरे साथ न, जगत तुम्हारे साथ।।

जैसी करनी तेरी है, वैसी भरनी होय।
पानी चलनी भर रहे, बुझे प्यास न कोय।।

धन दौलत अभिमान पद, न आएंगे काम।
हरि नाम तू जाप ले, बनेगे बिगड़े काम।।

कर्ता हरि को मान तू, हर्ता हरि को मान।
सकल जगत बैरी भये, नही करे कछु ध्यान।।

जैसी तेरी बुध्दि है, वैसे ही फल पाय।
सार सभी का हरि हरे, काहे तू बौराय।।

विपुल नही कोई मित्र है, न शत्रु है कोय।
हरि रूप व्यापक भया, हरि हरित ही होय।।

हरि रूप यह विश्व है, हरि रूप विस्तार।
पाप पुण्य देखे वही, काहे करे विचार।।






मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान। 

जो ना मांगे न कछु, सब कुछ मिलता जान।। 



मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान।

जे जन मांगे कछु नहीसब कुछ मिलता जान।। 



मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान।

जो जन मांगे नही कछु, सब मिल जाता  जान।।



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